Thursday, August 30, 2007

भारत का अतीत गौरवशाली था या नहीं

इंटरनेट पर सर्च करते समय मेरी नजर एक हिन्दी न्यूज की वेबसाइट पर पड़ी जिसमें खबर यह थी कि केन्द्रीय वित्त मंत्री पी.चिदम्बरम ने एक कार्यक्रम में कहा कि नई पीढ़ी को यह बताना गलत है कि भारत का अतीत गौरवशाली रहा है और यहाँ दूध और शहद की नदियाँ बहती थीं। उन्होंने कहा कि यह शिक्षा देना कि भारत 500 वर्ष पहले समृद्ध और दूध-शहद का देश था तथ्यात्मक रूप से गलत है। उन्होंने कहा कि भारत में गरीबी हमेशा रही। हाँ, कहीं-कहीं समृद्ध क्षेत्र थे। उन्होंने कहा कि भारत के गौरवशाली अतीत का पाठ पढ़ाने वाली पुस्तकों को जला दिया जाना चाहिए। वित्त मंत्री देश ने कहा कि मैं चाहता हूँ कि मेरे जीवनकाल में ही गरीबी का उन्मूलन हो जाए। उनकी पुस्तक को भारत की अर्थव्यवस्था और सुधार प्रक्रिया का तथ्यात्मक निचोड़ माना जाता है।
इस खबर को पढ़कर मुझे लगता है कि अब इस विषय पर बहस होनी चाहिए कि क्या भारत का अतीत गौरवशाली था या नहीं?

Friday, August 17, 2007

"दिव्य प्रेम सेवा मिशन" एक सफल प्रयोग

विश्व के दो तिहाई कुष्ठ रोगी भारतीय हैं। ये ऐसे रोगी हैं जोकि समाज में सर्वाधिक पीड़ित,उपेक्षित और घृणित हैं। हमारे बीच के बंधु अगर इस रोग से पीड़ित हो जाते हैं, तो हम उन्हें अपने से अलग मान बैठते हैं और उनकों परिवार से बहिष्कृत कर देते हैं। हमारे तिरस्कार की परिणति है इन परिवारों में जन्में बच्चे शिक्षा और संस्कार के अभाव में गलत हाथों में खेलने को विवश हो जाते हैं। अगर इन्हीं बच्चों को अच्छी शिक्षा व संस्कार मिले तो ये आगे चलकर वैज्ञानिक,डॉक्टर,सेना के अधिकारी व जवान बनकर देश की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति दे सकते हैं। ऐसे ही कुष्ठ रोगियों के बच्चों को शिक्षित व संस्कारवान बनाने में सेवारत है हरिद्वार स्थित दिव्य प्रेम सेवा मिशन। स्वामी विवेकानंद के सेवा-दर्शन से प्रेरित एवं आध्यात्मिक व सामाजिक सोच रखने वाले श्री आशीष गौतम और उनके कुछ साथियों ने 12 जनवरी,1997 को दिव्य प्रेम सेवा मिशन नामक प्रकल्प प्रारंभ किया। प्रारंभ के दिनों में प्रयाग से आए सेवाव्रती आठ कार्यकर्ताओं ने हरिद्वार में चंडीघाट के पास हनुमान मंदिर के निकट झोपड़ी डालकर चिकित्सा केंद्र प्रारंभ किया। इसी क्रम में मार्च,1998 में कुष्ठ रोगियों के 15 बच्चों को लेकर चंडीघाट में सेवाकुंज के नाम से एक छात्रावास प्रारंभ किया गया। सन् 2002 में मिशन ने हरिद्वार से ऋषिकेश मार्ग पर 15 बीघे जमीन खरीदी और वहां वंदेमातरम् कुंज के नाम से एक छात्रावास प्रारंभ किया। आज इस प्रदीप वाटिका नामक छात्रावास में देश के 12 प्रांतों से आये कुष्टरोगियों के स्वस्थ शिशुओं के सर्वांगीण विकास पर ध्यान दिया जा रहा है। वंदेमातरम् परिसर में दिव्य भारत शिक्षा मंदिर नाम से एक विद्यालय भी चलाया जा रहा है। मिशन के द्नारा एक समिधा चिकित्सालय, सुश्रुत अल्सर केयर सेंटर, माधव राव देवले शिक्षा मंदिर व एकल विद्यालय चलाया जा रहा है। इन सभी प्रकल्पों का सफल संचालन समाज के आर्थिक सहयोग के साथ-साथ श्रमदान, अध्यापन, स्वास्थ्य केंद्र संचालन से हो रहा है।
समाज में कुष्ठ रोगियों के प्रति व्याप्त उपेक्षा को दूर करने के लिए मिशन द्वारा रामकथा का भी आयोजन किया जाता है। इस पुनित कार्य में विशेष रूप से पूज्य संत श्री विजय कौशल महाराज व पूज्य संत श्री अतुल कृष्ण भारद्वाज महाराज जी का आशीर्वाद प्राप्त है। आइए हम भी इस पुनित कार्य में सहभागी बनें। मिशन के कार्यों में किसी प्रकार का सहयोग करने के लिए या किसी प्रकार की जानकारी के लिए आप निम्न पते पर संपर्क कर सकते हैं-
श्री संजय चतुर्वेदी (संयोजक,दिव्य प्रेम सेवा मिशन) सेवा कुंज, चंडीघाट, हरिद्वार(उत्तरांचल)। दूरभाष-(01334) 222211,09837088910। ई-मेल-sanjay_dpsm@rediffmail.com। वेबसाइट-http://www.divyaprem.org

Sunday, August 12, 2007

सूचना क्रांति के साथ बदली पत्रकारिता

आगामी 15 अगस्त को हम अपनी आजादी की साठवीं सालगिरह मनाने जा रहे हैं। इस शुभ अवसर पर है। ये पंक्तियां पुनः स्मरण करनी होगी कि "खीचों न कमानों को, न तलवार निकालो। जब तोप मुक़ाबिल हो, तो अखबार निकालो।।" एक समय था जब ये पंक्तियां पत्रकारिता की बाइबिल समझी जाती थी। तब पत्रकारिता को एक प्रोफेशन नहीं मिशन समझा जाता था और जिसके उद्वेग से उद्वेलित हो संपूर्ण देश व समाज एक दिशा में बहता चला जाता था। जैसे-जैसे तकनीकी विकास होते गए, हर दिन नए आयाम बनते-बिगड़ते रहे और धीरे-धीरे पत्रकारिता का स्वरूप परिवर्तित होता चला गया। आज हम सूचना क्रांति के दौर से गुजर रहे हैं। वर्तमान समय में समाचार-पत्र हों या समाचार चैनल या कोई अन्य माध्यम, सभी अपने पाठकों या दर्शकों तक एक नई और एक्सक्लूसिव खबर या कहा जाए तो ब्रेकिंग न्यूज के साथ अपनी पहुंच बनाना चाहते हैं। और यहीं कारण है कि आज की पत्रकारिता सनसनीखेज पत्रकारिता का पर्याय बनकर रह गयी। समाचार माध्यम ऊल-जलूल खबरें हमारे सामने परोस रहे हैं। समाचार पत्रों में प्रसार संख्या बढ़ाने और चैनलों में टीआरपी रेटिंग में बढ़ोत्तरी करने की होड़ लगी है और होड़ हो भी क्यों न? आज अखबार के प्रकाशन व चैनलों के प्रसारण में लगने वाली पूंजी के कारण पत्रकारिता ने उद्योग का रूप ले लिया है। ऐसी स्थिति में उसमें लगने वाला पैसा किस प्रकार मिशनरी संकल्पों का वाहक बन सकता है? आज के समय में यह तंत्र सीधा प्रकाशक व प्रसारणकर्ता के हितों से जुड़ गया है। वर्तमान समय में पत्रकारिता की चुनौतियां उसकी स्वयं की समस्याएं बन चुकी हैं, जिसका निदान यदि जल्द ही न किया गया तो पत्रकारिता एक ऐसी व्यूह रचना में उलझ कर रह जाएगी जिसे भेद पाना मुश्किल हो जाएगा। आज हमें पुनः विचार करना होगा कि आखिर पत्रकारिता का मूल उद्देश्य क्या है?
और साथ ही साथ हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं।

Wednesday, August 8, 2007

महामना पंडित मदन मोहन मालवीय और पत्रकारिता

राष्ट्रभाषा हिन्दी और देवनागरी लिपि आन्दोलन के सूत्रधार महामना मदन मोहन मालवीय जी के विलिक्षण व्यक्तित्व में एक साथ निर्भीक वक्ता, श्रेष्ठ पत्रकार, प्रखर अधिवक्ता, कुशल प्राध्यापक, श्रेष्ठ समालोचक, उत्कृष्ठ कवि व लेखक और जननायकत्व का समुच्चय था। महामना मालवीय जी ने अपने अध्यापन काल में ही सन् १८८६ ई में कलकत्ता में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन में भाग लिया था। महामना मालवीय जी की वक्तता से प्रभावित होकर अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में दादा भाई नौरोजी ने कहा कि "इनकी वाणी में भारतमाता की वाणी है।" इसी अधिवेशन में उपस्थित कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह ने महामना मालवीय जी के प्रभावशाली भाषण से मंत्रमुग्ध होकर उनसे अपने दैनिक "हिन्दोस्थान" के संपादन का दायित्व संभालने का अनुरोध किया। अन्ततः अध्यापन कार्य छोड़कर सन् १८८६ ई में महामना मालवीय जी ने "हिन्दोस्थान" का संपादकत्व स्वीकार कर लिया और यहीं से मालवीय जी के यशस्वी पत्रकारिता जीवन का श्रीगणेश हुआ। महामना के पत्रकारिता जीवन का द्वितीय पड़ाव "अभ्युदय" का संस्थापना-संपादन (सन् १९०७ ई) था। इस पत्र के माध्यम से महामना मालवीय जी ने संपादकीय स्वतन्त्रता की लड़ाई भी लड़ी। महामना मालवीय जी ने लगभग दो वर्षों तक इसका संपादन किया। २४ नवंबर, सन् १९०९ को विजयादशमी के शुभ दिन "लीडर" नामक अंग्रजी पत्र का प्रकाशन इलाहाबाद से प्रारम्भ हुआ। इस पत्र के माध्यम से महामना मालवीय जी स्वतंत्रता और पत्रकारों के स्वाभिमान की रक्षा तथा अहिन्दी भाषी क्षेत्रों तक अपनी बात पहुंचाना चाहते थे। सन् १९२९ ई में महामना मालवीय जी की प्रेरणा से इसके हिन्दी संस्करण "भारत" का भी प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। "लीडर" के प्रकाशन के एक वर्ष के पश्चात ही मालवीय जी के प्रयास से "मर्यादा" नामक पत्र का भी प्रकाशन शुरू हुआ। मालवीय द्वारा राजनीतिक समस्याओं पर लिखे गए अनेक निबन्ध इस पत्र में प्रकाशित हुए। सन् १९२४ ई में नई दिल्ली से प्रकाशित अंग्रजी दैनिक "हिन्दुस्तान टाइम्स" का भी प्रबन्धन आपने स्वीकार कर लिया और दीर्घकाल तक उसकी प्रबन्ध समीति के अध्यक्ष रहे। आपके ही सत्प्रयास से प्रारम्भ "हिन्दुस्तान" नामक इसका हिन्दी संस्करण आज भी प्रकाशित हो रहा है। २० जुलाई, सन् १९३३ ई को महामना मालवीयजी ने काशी से "सनातन धर्म" नामक साप्ताहिक पत्र निकाला, देशकाल और परिस्थिति से प्रेरित था। महामना मालवीय जी ने अनेक पत्र-पत्रिकाओं के संचालन में भी अपना बहुमूल्य योगदान दिया। हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में महामना मालवीयजी का अवदान अविस्मरणीय रहेगा।

Monday, August 6, 2007

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का पत्रकारिता में योगदान

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी में आधुनिक साहित्य के जन्मदाता और भारतीय पुर्नजागरण के एक स्तंभ के रूप में जाने जाते हैं। वे सन् १८५० में धर्मनगरी काशी (वाराणसी) के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में जन्में थे। उनके पिता गोपाल चन्द्र एक अच्छे कवि थे और गिरधर दास उपनाम से कविता लिखा करते थे। भारतेन्दु जी की अल्पावस्था में ही उनके माता-पिता का देहांत हो गया था। अतः स्कूली शिक्षा प्राप्त करने में भारतेन्दु जी असमर्थ रहे। घर पर ही रहकर हिंदी, मराठी, बंगला, उर्दू तथा अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया। बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।
पंद्रह वर्ष की अवस्था में ही भारतेन्दु जी ने साहित्य की सेवा प्रारंभ कर दी थी, अठारह वर्ष की अवस्था में उन्होंने 'कविवचन सुधा' नामक पत्र निकाला जिसमें उस समय के बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थीं। हिंदी पत्रकारिता, नाटक और काव्य के क्षेत्र में उनका बहुमूल्य योगदान रहा। उन्होंने 'हरिश्चन्द्र पत्रिका' और 'बाल विबोधिनी' पत्रिकाओं का संपादन भी किया। मातृभाषा की सेवा में उन्होंने अपना जीवन ही नहीं संपूर्ण धन भी अर्पित कर दिया। दीन-दुखियों की सहायता तथा मित्रों की सहायता करना वे अपना कर्तव्य समझते थे। उनका अत्यन्त अल्पायु में ही सन् १८८५ में देहांत हो गया।
उनके जीवन का मूल मंत्र था हिन्दी भाषा की उन्नति। वे कहा करते थे कि-
निज भाषा उन्नति लहै सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल।।

Sunday, August 5, 2007

लोक-कल्याण के संदेशवाहक देवर्षि नारद

देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा जाता है। इसी कारण सुभी युगों में, तीनों लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गों में नारद जी का प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर सम्मान दिया है।


महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में नारद जी के व्यक्तित्व का परिचय इस प्रकार दिया गया है- देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों(अतीत) की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत- विशारद, प्रभावशाली वक्ता, कवि , विद्वानों की शंकाओं का समाधान करने वाले, सभी विधाओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं। भगवान की अधिकांश लीलाओं में नारद जी उनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता भी हैं।

लेकिन आजकल नारद जी का जो चरित्र-चित्रण हो रहा है, वह देवर्षि नारद की महानता के सामने एकदम बौना है। आज नारद जी के छवि की लड़ाई-झगड़ा करवाने वाले व्यक्ति अथवा विदूषक की बन गई है। यह उनके प्रकाण्ड पांडित्य एवं विराट व्यक्तित्व के प्रति सरासर अन्याय है। आज हमें आगे आकर समाज को नारद जी के व्यक्तित्व के बारे में बताना होगा।

चाणक्य नीति

संसार रूपी कड़वे वृक्ष पर दो फल
अमृत के समान हैं, पहला प्रिय
वचन और दूसरा सज्जनों की संगति।

- आचार्य चाणक्य

Thursday, August 2, 2007

प्रेम केवल एक ही है,
दिव्य प्रेम
शाश्वत, वैश्व, सबके लिए,
सभी चीजों के लिए समान!
-महर्षि अरविंद